Thursday, July 24, 2008

क्या आप जानते हैं?

यह भी कैसी विडम्बना है की आज हमारे लोकतंत्र के मन्दिर यानि संसद में लोग पैसे देकर समर्थन हासिल कर लेते हैं। आपको याद होगा कि किस तरह चुनाव जीतने के बाद सोनिया गाँधी त्याग कि प्रतिमूर्ति के रूप में हमारे सामने उपस्थित हुई थी। डॉ मनमोहन सिंघ कि नीली पगड़ी पर भी कोई दाग़ नहीं था। उनका सफ़ेद कुरता पजामा भी बहुत उजला था। लेकिन जिस तरह इन दोनों महानुभावों ने सब कुछ दागदार कर दिया उससे तो यही लगता है कि सत्ता ऐसा नशा है जो सर चदकर बोलता है। विश्वास मत प्राप्त करने के बाद जिस तरह मनमोहन सिंघ ने अपनी प्रतिक्रिया दे उससे पता चल गया कि वे सत्ता के दलालों के हाथ में खेलने के लिए तैयार हैं। अभी तक तो वे सिर्फ़ अमेरिका के दलाल थे, लेकिन अब वे अमर सिंघ जैसे कमीने लोगों से भी हाथ मिला कर देश का बंटाधार करने में जुट गए हैं। बोफोर्स की दलाल सोनिया गाँधी के तो कहने ही क्या?

Tuesday, February 12, 2008

नेता भी भड़ास निकालते हैं!

शायद कम ही लोगों को मालूम हो कि नेता भी भड़ास निकालते हैं खास तौर से तब जब वह खुद को शारीरिक तौर पर कमज़ोर पाते हैं।
कुछ दिनों पहले कि बात है उत्तर प्रदेश के एक नेता को मुम्बई से एक फिल्म ऐक्ट्रेस ने फ़ोन किया। नेताजी ने अपना दुखडा रोना शुरू किया कि उमर हो रही है और डॉक्टरों ने काफी एह्तित्यात बरतने कि हिदायत दी है। ऐक्ट्रेस कहती है कि इससे क्या फर्क पड़ता है, तो नेताजी जवाब देते हैं-
"But it matters between the legs......."

क्या आप इस नेता और इस फिल्म ऐक्ट्रेस को पहचान सकते हैं?

Monday, February 11, 2008

क्या भड़ास निकालना ज़रूरी है ?

सुधा जी ने लिखा है कि ब्लोग भड़ास निकालने का ज़रिया है। किसी के विचारों को अगर कोई भड़ास समझ ले तो कोई क्या कर सकता है। दुनिया में भड़ास नाम की कोई चीज़ नहीं होती, सब विचार ही होते हैं। सुधा जी जैसे अन्य पाठक भी अपनी अपनी 'भड़ास' जैसी चीज़ मेरे ब्लोग में निकाल सकते हैं।