Wednesday, November 11, 2009

पाकिस्तान में विरोधाभास !

पाकिस्तान अजीब-ओ- ग़रीब मुल्क है. यानी वह ग़रीब तो है ही, अजीब भी है. सरकार में कोई तालमेल नहीं है. पिछले दिनों पेशावर में कई बम धमाके हुए, और पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मालि ने आव देखा न ताव, भारत को धमाकों के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया. दिलचस्प बात यह है कि जब इंटर सर्विसेस पब्लिक रिलेशंस के प्रवक्ता मेजर जनरल अतहर अब्बास से इसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, 'कोई भी इंटेलिजेंस एजेन्सी अपने foot prints नहीं छोड़ती है. अगर वह foot prints छोड़ देती है तो वह बहुत बेकार और अकुशल इंटेलिजेंस एजेन्सी मानी जायेगी. हमें इसके बारे में leads मिलती हैं जो 
कुछ दूर जाकर ख़तम हो जाती हैं, इसलिए यह कहना कि किसी बाहरी ताकत ने ये धमाके करवाए हैं, यह कहना मुश्किल है.'
वहीँ पाकिस्तान के मशहूर बुद्धिजीवी प्रोफ़ेसर परवेज़ हूदभाई का कहना है, 'रहमान मालिक ने इस तरह का कोई सबूत अब तक नहीं दिया है जिससे यह साबित हो सके पाकिस्तान में होने वाली आतंकवादी गतिविधियों में भारत लिप्त है. कहने को तो कोई कुछ भी कह दे.' 
पाकिस्तान में भी कोई कम ऐब नहीं हैं. भारत के अलावा वह इरान और यहाँ तक कि चीन में भी आतंकवादी गतिविधियों का संचालन कर रहा है. यह बात पाकिस्तान के एक रक्षा विशेषज्ञ मेजर (अवकाशप्राप्त) सईद अनवर की बात से ज़ाहिर हो जाता है. वह कहते हैं, 'इस तरह की बातें बहुत संवेदनशील होती हैं, और उन्हें इस तरह नहीं कहना चाहिए. क्या पाकिस्तान इरान और चीन में गड़बड़ नहीं कर रहा है? इरान के गृह मंत्री तो पाकिस्तान आये इसीलिए थे कि अब्दुल मालिक रेगी हमारे यहाँ छुपा है और इरान में आतंक फैला रहा है. क्या चीन के उइघुर मुसलमानों को पाकिस्तान में ट्रेनिंग नहीं दी जाती? चीन हमेशा खामोशी से इसका विरोध दर्ज करवाता रहता है, और हमने कुछ लोगों को पकड़ कर उनके हवाले किया भी है जिन्हें चीन में सजा भी मिली है.'
खुद पाकिस्तान के लोगों के विचारों में इतना विरोधाभास है. पाकिस्तान सरकार कहाँ है? यह वहां के लोगों तक को पता नहीं है. एक तरफ रक्षा मंत्री अहमद मुख्तार अपनी बाईपास सर्जरी करवाने के बाद स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं और जनरल अशफाक परवेज़ कयानी के ही हाथों में साउथ वजीरिस्तान में चलने वाले फौजी ऑपरेशन ऑपरेशन राह- ए- निजात की बागडोर है. पाकिस्तान में लगातार यह सवाल उठ रहा है कि न तो प्रधान मंत्री युसूफ रजा गिलानीराष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी और न गृह मंत्री रहमान मालिक साउथ वजीरिस्तान जाकर वहां का हाल चाल लेने की हिम्मत दिखा पा रहे हैं. सब इस्लामाबाद में बैठकर सिर्फ भारत पर इल्जाम लगाते रहते हैं.

Monday, November 09, 2009

मृत्यु का सामना !

कुछ दिनों पहले अपनी भाभी को खोया है. उनके बाद जब प्रभाष जोशी जी का निधन हुआ और उनके शव को ताबूत में लेटा देखा तो सोचा यह मृत्यु भी अजीब चीज़ है. मैं यहाँ किसी दार्शनिक बहस को उभारना नहीं चाहता. जो भी बात करूंगा वह अनुभव और सामाजिक हकीकत पर करूंगा.
एक बात तो यह तय जान लें कि मृत्यु बहुत आनंद दायक क्षण है. कहने का मतलब यह कि जब मृत्यु हो रही हो, आदमी चेतना खो रहा हो, तो ये क्षण बहुत आनंद दायक होते हैं. थोडा आध्यात्मिक तौर पर कहें तो जब स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर  और कारण शरीर  का संपर्क एक दूसरे से टूटने लगता है तो वह क्षण आनंद का होता है. यह मैं अनुभव से कह रहा हूँ क्योंकि मैं एक बार मरने की प्रक्रिया से गुज़र चुका हूँ.
बात २००४ की है, मैं मुंबई गया था अपनी बड़ी बहन को देखने जिनका कैंसर अंतिम चरणों में था. वे वहां माहिम के रहेजा हॉस्पिटल में भरती थीं और डॉक्टर अडवाणी उनका इलाज कर रहे थे. वापसी में दिल्ली राजधानी ट्रेन में था कि चिंता, दुःख और तरह-तरह की आशंकाओं ने मेरे दिल में हलचल पैदा कर दी और मेरे हृदय की गति राजधानी ट्रेन की गति से भी तेज़ हो गयी. किसी तरह राम-राम करते मुझे दिल्ली लाया गया. डॉक्टर ने फ़ौरन radio frequency ablation करवाने की सलाह दी और मुझे Delhi Heart and Lung Institute में भरती कर दिया गया. मुझ पर जब पांच डॉक्टर लोग अपना हुनर दिखा रहे थे तो कुछ देर के लिए मेरे दिल की धड़कनें बंद हो गयी थीं. वे क्षण मेरे लिए असीम सुख लेकर आये थे. डॉक्टर लोगों ने जल्द ही धड़कन फिर चालू कर दी थी, तभी तो आपसे हमकलाम हूँ.
यह बातें मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मनुष्य को मृत्यु से नहीं डरना चाहिए. उसका स्वागत करना चाहिए. मरने के बाद तो होश रहता नहीं है, लेकिन मरने की जो प्रक्रिया होती है यानि प्राण निकलने की प्रक्रिया, वह बहुत सुखकर होती है. बस दुःख इसी बात का रह जाता है की आदमी के साथ उसका talent भी चला जाता है.

Wednesday, November 04, 2009

अब क्या करेगा भारत ?

भारत का राजनय एक बार फिर अँधेरे में है. यह सही है की प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अच्छे अर्थशास्त्री हैं लेकिन उनकी सरकार की विदेश नीति बहुत कमज़ोर है.
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल में घोषणा की है की अफगानिस्तान में जो तालिबान हथियार डाल देंगे उसे दो लाख अमेरिकी डॉलर दिए जायेंगे. इसके पहले अमेरिका 'गुड तालिबान' से बात करने की इच्छा ज़ाहिर कर चुका है. दूसरी तरफ तालिबान ने आठ अक्टूबर २००९ को एक ऐलान किया था, 'हमारी विश्व के किसी भी देश पर हमला करने की कोई योजना नहीं है. हमारी योजना सिर्फ अफगानिस्तान को आजाद कराने और उसे इस्लामी देश बनाने भर की है.' 
यह बात दिमाग में साफ़ रहनी चाहिए कि अमेरिका की कोई लड़ाई तालिबान से नहीं है. उसकी असली लड़ाई तो सिर्फ अल काएदा से है. और अगर तालिबान यह ज़मानत दे देते हैं कि वे अमेरिका और उसके दोस्त मुल्कों के खिलाफ अल काएदा को अपनी ज़मीन का इस्तेमाल नहीं करने देंगे तो बस फिर क्या है ! अमेरिका तालिबान के साथ समझौता कर लेगा. 
ऐसी हालत में भारत क्या करेगा ? भारत अफगानिस्तान में एक अरब डॉलर की मदद दे चुका है. अफगानिस्तान से ही उसे पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने लगाने का ठिकाना भी मिला हुआ है. यह सब पानी हो जायेगा क्योंकि तालिबान के साथ समझौता होने के बाद जो सरकार अफगानिस्तान में बनेगी वह पाकिस्तान को बहुत रास आयेगी और भारत को और मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. इसलिए ज़रूरी है की भारत को ऐसी कांफ्रेंस बुलाने की पहल करनी चाहिए जिस में सभी पडोसी देश शामिल हों और सभी यह अहद करें कि कोई भी देश दूसरे के यहाँ हस्तक्षेप नहीं करेगा. इसके अलावा अफगानिस्तान को उसकी पारंपरिक तटस्थ स्थिति प्रदान की जाये. अंतिम बात यह कि भारत इस मामले में इरान को साथ रखे क्योंकि इरान इस समय पाकिस्तान से खार खाए बैठा है. पाकिस्तान से ही अब्दुल मालेकी रिगी इरान में आतंकवादी हमले करता है.