Wednesday, November 11, 2009

पाकिस्तान में विरोधाभास !

पाकिस्तान अजीब-ओ- ग़रीब मुल्क है. यानी वह ग़रीब तो है ही, अजीब भी है. सरकार में कोई तालमेल नहीं है. पिछले दिनों पेशावर में कई बम धमाके हुए, और पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मालि ने आव देखा न ताव, भारत को धमाकों के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया. दिलचस्प बात यह है कि जब इंटर सर्विसेस पब्लिक रिलेशंस के प्रवक्ता मेजर जनरल अतहर अब्बास से इसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, 'कोई भी इंटेलिजेंस एजेन्सी अपने foot prints नहीं छोड़ती है. अगर वह foot prints छोड़ देती है तो वह बहुत बेकार और अकुशल इंटेलिजेंस एजेन्सी मानी जायेगी. हमें इसके बारे में leads मिलती हैं जो 
कुछ दूर जाकर ख़तम हो जाती हैं, इसलिए यह कहना कि किसी बाहरी ताकत ने ये धमाके करवाए हैं, यह कहना मुश्किल है.'
वहीँ पाकिस्तान के मशहूर बुद्धिजीवी प्रोफ़ेसर परवेज़ हूदभाई का कहना है, 'रहमान मालिक ने इस तरह का कोई सबूत अब तक नहीं दिया है जिससे यह साबित हो सके पाकिस्तान में होने वाली आतंकवादी गतिविधियों में भारत लिप्त है. कहने को तो कोई कुछ भी कह दे.' 
पाकिस्तान में भी कोई कम ऐब नहीं हैं. भारत के अलावा वह इरान और यहाँ तक कि चीन में भी आतंकवादी गतिविधियों का संचालन कर रहा है. यह बात पाकिस्तान के एक रक्षा विशेषज्ञ मेजर (अवकाशप्राप्त) सईद अनवर की बात से ज़ाहिर हो जाता है. वह कहते हैं, 'इस तरह की बातें बहुत संवेदनशील होती हैं, और उन्हें इस तरह नहीं कहना चाहिए. क्या पाकिस्तान इरान और चीन में गड़बड़ नहीं कर रहा है? इरान के गृह मंत्री तो पाकिस्तान आये इसीलिए थे कि अब्दुल मालिक रेगी हमारे यहाँ छुपा है और इरान में आतंक फैला रहा है. क्या चीन के उइघुर मुसलमानों को पाकिस्तान में ट्रेनिंग नहीं दी जाती? चीन हमेशा खामोशी से इसका विरोध दर्ज करवाता रहता है, और हमने कुछ लोगों को पकड़ कर उनके हवाले किया भी है जिन्हें चीन में सजा भी मिली है.'
खुद पाकिस्तान के लोगों के विचारों में इतना विरोधाभास है. पाकिस्तान सरकार कहाँ है? यह वहां के लोगों तक को पता नहीं है. एक तरफ रक्षा मंत्री अहमद मुख्तार अपनी बाईपास सर्जरी करवाने के बाद स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं और जनरल अशफाक परवेज़ कयानी के ही हाथों में साउथ वजीरिस्तान में चलने वाले फौजी ऑपरेशन ऑपरेशन राह- ए- निजात की बागडोर है. पाकिस्तान में लगातार यह सवाल उठ रहा है कि न तो प्रधान मंत्री युसूफ रजा गिलानीराष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी और न गृह मंत्री रहमान मालिक साउथ वजीरिस्तान जाकर वहां का हाल चाल लेने की हिम्मत दिखा पा रहे हैं. सब इस्लामाबाद में बैठकर सिर्फ भारत पर इल्जाम लगाते रहते हैं.

Monday, November 09, 2009

मृत्यु का सामना !

कुछ दिनों पहले अपनी भाभी को खोया है. उनके बाद जब प्रभाष जोशी जी का निधन हुआ और उनके शव को ताबूत में लेटा देखा तो सोचा यह मृत्यु भी अजीब चीज़ है. मैं यहाँ किसी दार्शनिक बहस को उभारना नहीं चाहता. जो भी बात करूंगा वह अनुभव और सामाजिक हकीकत पर करूंगा.
एक बात तो यह तय जान लें कि मृत्यु बहुत आनंद दायक क्षण है. कहने का मतलब यह कि जब मृत्यु हो रही हो, आदमी चेतना खो रहा हो, तो ये क्षण बहुत आनंद दायक होते हैं. थोडा आध्यात्मिक तौर पर कहें तो जब स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर  और कारण शरीर  का संपर्क एक दूसरे से टूटने लगता है तो वह क्षण आनंद का होता है. यह मैं अनुभव से कह रहा हूँ क्योंकि मैं एक बार मरने की प्रक्रिया से गुज़र चुका हूँ.
बात २००४ की है, मैं मुंबई गया था अपनी बड़ी बहन को देखने जिनका कैंसर अंतिम चरणों में था. वे वहां माहिम के रहेजा हॉस्पिटल में भरती थीं और डॉक्टर अडवाणी उनका इलाज कर रहे थे. वापसी में दिल्ली राजधानी ट्रेन में था कि चिंता, दुःख और तरह-तरह की आशंकाओं ने मेरे दिल में हलचल पैदा कर दी और मेरे हृदय की गति राजधानी ट्रेन की गति से भी तेज़ हो गयी. किसी तरह राम-राम करते मुझे दिल्ली लाया गया. डॉक्टर ने फ़ौरन radio frequency ablation करवाने की सलाह दी और मुझे Delhi Heart and Lung Institute में भरती कर दिया गया. मुझ पर जब पांच डॉक्टर लोग अपना हुनर दिखा रहे थे तो कुछ देर के लिए मेरे दिल की धड़कनें बंद हो गयी थीं. वे क्षण मेरे लिए असीम सुख लेकर आये थे. डॉक्टर लोगों ने जल्द ही धड़कन फिर चालू कर दी थी, तभी तो आपसे हमकलाम हूँ.
यह बातें मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मनुष्य को मृत्यु से नहीं डरना चाहिए. उसका स्वागत करना चाहिए. मरने के बाद तो होश रहता नहीं है, लेकिन मरने की जो प्रक्रिया होती है यानि प्राण निकलने की प्रक्रिया, वह बहुत सुखकर होती है. बस दुःख इसी बात का रह जाता है की आदमी के साथ उसका talent भी चला जाता है.

Wednesday, November 04, 2009

अब क्या करेगा भारत ?

भारत का राजनय एक बार फिर अँधेरे में है. यह सही है की प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अच्छे अर्थशास्त्री हैं लेकिन उनकी सरकार की विदेश नीति बहुत कमज़ोर है.
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल में घोषणा की है की अफगानिस्तान में जो तालिबान हथियार डाल देंगे उसे दो लाख अमेरिकी डॉलर दिए जायेंगे. इसके पहले अमेरिका 'गुड तालिबान' से बात करने की इच्छा ज़ाहिर कर चुका है. दूसरी तरफ तालिबान ने आठ अक्टूबर २००९ को एक ऐलान किया था, 'हमारी विश्व के किसी भी देश पर हमला करने की कोई योजना नहीं है. हमारी योजना सिर्फ अफगानिस्तान को आजाद कराने और उसे इस्लामी देश बनाने भर की है.' 
यह बात दिमाग में साफ़ रहनी चाहिए कि अमेरिका की कोई लड़ाई तालिबान से नहीं है. उसकी असली लड़ाई तो सिर्फ अल काएदा से है. और अगर तालिबान यह ज़मानत दे देते हैं कि वे अमेरिका और उसके दोस्त मुल्कों के खिलाफ अल काएदा को अपनी ज़मीन का इस्तेमाल नहीं करने देंगे तो बस फिर क्या है ! अमेरिका तालिबान के साथ समझौता कर लेगा. 
ऐसी हालत में भारत क्या करेगा ? भारत अफगानिस्तान में एक अरब डॉलर की मदद दे चुका है. अफगानिस्तान से ही उसे पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने लगाने का ठिकाना भी मिला हुआ है. यह सब पानी हो जायेगा क्योंकि तालिबान के साथ समझौता होने के बाद जो सरकार अफगानिस्तान में बनेगी वह पाकिस्तान को बहुत रास आयेगी और भारत को और मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. इसलिए ज़रूरी है की भारत को ऐसी कांफ्रेंस बुलाने की पहल करनी चाहिए जिस में सभी पडोसी देश शामिल हों और सभी यह अहद करें कि कोई भी देश दूसरे के यहाँ हस्तक्षेप नहीं करेगा. इसके अलावा अफगानिस्तान को उसकी पारंपरिक तटस्थ स्थिति प्रदान की जाये. अंतिम बात यह कि भारत इस मामले में इरान को साथ रखे क्योंकि इरान इस समय पाकिस्तान से खार खाए बैठा है. पाकिस्तान से ही अब्दुल मालेकी रिगी इरान में आतंकवादी हमले करता है. 

Monday, October 26, 2009

संघ के लोगों की बीमारियाँ !


अभी कुछ दिनों पहले की बात है, सीहोर (मध्य प्रदेश) से मेरे एक पत्रकार मित्र आये हुए थे. उन्होंने बताया कि सीहोर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक प्रचारक ने संघ की शाखाओं में आने वाले एक बालक के साथ दुष्कर्म किया. इस घटना को रफा दफाकर दिया गया और वह प्रचारक आज भी छुट्टे सांड की तरह घूम रहा है. राज्य में हाफ पैनटिया लोगों की सरकार है इसलिए संघियों के सारे अपराध माफ़ हैं.
संघ के अविवाहित प्रचारक के बारे में मशहूर है कि वे संघ की शाखाओं में आने वाले अबोध बालकों के साथ दुष्कर्म करते हैं. सभी प्रचारक तो ऐसे नहीं होते, लेकिन प्रायः होते हैं. कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो चोरी छुपे महिलायों के साथ सम्बन्ध रखते हैं. दो को मैं ही जनता हूँ. एक को तो टीकमगढ़ में 'मद्रास वाले जीजाजी' कहा जाता है, और दूसरे एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं. संघ परिवार के एक वयोवृध्द नेता तो आजीवन अविवाहित रहे लेकिन अपनी प्रेमिका को हमेशा उन्होंने अपने साथ रखा. उस महिला से उनकी एक बेटी भी है जिसे गोद लेकर उन्होंने उसे अपना नाम दे दिया है.
बहरहाल, कहने का मकसद यह है कि संघ परिवार में दुष्कर्मियों और ऐयाशों की कोई कमी नहीं है.

Tuesday, October 06, 2009

हम डरते हैं चीन से !!

हम चीन से डरते हैं. हमें उसकी फौज से डर लगता है. हमें उसके हथियारों से डर लगता है. हमें उसके कारोबार से डर लगता है. चीन से डरने की कोई सीमा नहीं है. दरअसल हमें उससे डरने का बहाना चाहिए. १९६२ की जंग के बाद से ही हमने चीन से डरना शुरू कर दिया था, और आज तक उससे डरते चले आ रहे हैं. अभी हाल में चीन ने अपनी क्रांति का जो समारोह आयोजित किया और उसमे अपना जो शक्ति प्रदर्शन किया उससे हमारी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे से निकल गयी.
इन सब चीज़ों से हम डरते हैं लेकिन चीन की एक चीज़ से हम नहीं डरते जबकि उससे डरना बहुत ज़रूरी है. लेकिन चीन की उस ताकत की हमें रत्ती भर परवा नहीं है.
मेरे बड़े भाई और हिंदी के बड़े कवि श्री अशोक वाजपेयी के अनुसार चीन के समाजवादी गणतंत्र ने अपनी षष्ठिपूर्ति पर बीजिंग में अपनी सैन्य शक्ति का शानदार और भयातुर करने वाला प्रदर्शन किया जिससे चीन की एक लड़ाकू तस्वीर सामने आई. लेकिन जब दिल्ली में उसके राजदूतावास ने इस अवसर पर एक समारोह आयोजित किया तो उसमें आने वाले हर अतिथि को जो उपहार दिया, उसमे 'रीडिंग इन चाइना' नाम की एक पुस्तक है जो यह बताती है कि लड़ाकू होने के साथ-साथ चीन एक बेहद पढाकू देश भी है.
इस प्रचार-पुस्तक से यह तथ्य पता चलता है कि चीन में प्रति वर्ष दो लाख ३४ हज़ार पुस्तकें छपती हैं, जिनकी प्रतियों कि संख्या लगभग साढ़े छह अरब है. ऐसा अनुमान लगाया गया है कि २०१० से हर वर्ष १० लाख लोगों के पीछे १९२ पुस्तकें होंगी और हर वर्ष हर चीनी व्यक्ति औसतन साढ़े पांच पुस्तकें और ढाई पत्रिकाएं पढ़ रहा होगा. यह सब तब जब चीन में पढने की आदत घटने पर चिंता व्यक्त की जा रही है और सरकार और पार्टी दोनों ही स्तरों पर उसे बढाने के लिए विशेष प्रयत्न करने का आग्रह किया जा रहा है.
शंघाई में एक बुक मॉल है जो २७ मंजिला इमारत में स्थित है. उसमे रोजाना आने वाले व्यक्तियों की संख्या ३० लाख के आसपास है. साढ़े आठ लाख युआन की पुस्तकें रोजाना बिक जाती हैं. इधर कई खबरें इस आशय की आती रही हैं कि हमारी सैन्य शक्ति चीनी सैन्य शक्ति के मुकाबले कम है. इन आंकडों से लगता है कि चीन की चौतरफा बढती शक्ति का आधार उसका इस कदर पढाकू होना भी है. इस मामले में हम बेहद पीछे हैं, इसकी किसे चिंता है? और हम भारत को एक समकक्ष पढाकू देश बनाने के लिए क्या कुछ ठोस और कारगर कर पा रहे हैं?

Wednesday, September 23, 2009

लालदेंगा वाली सुषमा और उनके चम्मच विधायक डागा


आजकल मध्य प्रदेश में एक बवाल चल रहा हैवहां Bhopal Development Authority (BDA) के सीईओ मदन गोपाल रूसिया की गला घोंट के हत्या कर दी गई है, जिसमे बीजेपी के विधायक जीतेन्द्र डागा पर शक किया जा रहा हैडागा, सुषमा जी के बहुत करीबी हैं, अरे! वही सुषमा जी जो उत्तर-पूर्व के अलगाववादी लालदेंगा के करीबी रही हैं, बिल्कुल ठीक समझा, आपकी ही सुषमा स्वराज!

बात दरअसल यह है कि BDA ने भोपाल में कालोनी बनाने कि योजना तैयार की थी और भूमि अधिग्रहण किया जाना था। इसके लपेटे में डागा की ज़मीन भी रही थी और डागा के साथ आपकी सुषमा जी योजना को बदलने का दबाव डाल रही थींडागा ने रूसिया से कहा कि वह उनके साथ दिल्ली चल कर उनके वकील से बात कर लें और मामला ठीक हो जाएदोनों जने १० सितम्बर को हवाई जहाज से दिल्ली आए। उन्हें शाम को हवाई जहाज से वापस लौट जाना था लेकिन डागा ने कहा कि flight कैंसल हो गई है इसलिए ट्रेन से चला जाएगा

दोनों हज़रत निजामुद्दीन - हबीबगंज एक्सप्रेस में सवार हो गएडागा को भोपाल उतर जाना था और रूसिया को भोपाल के ही एक उपनगर हबीबगंज उतरना था जो भोपाल स्टेशन के बाद आता थाडागा के अनुसार जब वह भोपाल उतरने कि तैय्यारी करने लगे तो उन्होंने देखा की रूसिया का बैग और जूते तो रखे हैं लेकिन वह ख़ुद नहीं हैंडागा ने बताया की उन्हें लगा कि रूसिया वाशरूम गए होंगे, और वह ख़ुद भोपाल स्टेशन पर उतर गए

रूसिया जब घर नहीं पहुचे तो उनके घरवालों को चिंता हुई। उन लोगों ने गुमशुदगी की रपट लिखवाई। फिर पता चला रूसिया की लाश आगरा के पास पटरी के किनारे पड़ी है

डागा के ख़िलाफ़ कुछ हो नहीं पा रहा है क्योंकि मुख्यमंत्री को पता है डागा किसके कृपापात्र हैंसुषमा स्वराज का राज्य की राजनीति में बहुत दखल हैजब से उन्होंने मध्य प्रदेश में कदम रखा है उनकी संपत्ति भी बढ़ी हैमार्च २००६ में उनके और उनके घरवालों के पास ९३० ग्राम सोना था जो अब बढ़ कर २००५ ग्राम हो गया हैमार्च २००६ के बाद उनके पास एक mercedes benz गई है, उन्होंने .१४ करोड़ रुपिये अपने पति को लोन दिए हैं, और मुंबई में एक फ्लैट भी ख़रीदा है जिसकी अब तक उन्होंने एक करोड़, ३८ लाख, ९१ हज़ार, १५१ रुपिये चुकाए हैं

Friday, September 18, 2009

लगभग २५० साल पुरानी एक नज़्म यहाँ दे रहा हूँ, जिसे नजीर अकबराबादी ने लिखा है। पढ़ें और उस ज़माने की भाषा का लुत्फ़ उठायें -

बंजारा

इक हिर्सो हवा को छोड़ मियां

मत देस परदेस फिरे मारा

कज्जाक अजल का लूटे है

दिन - रात बजाकर नक्कारा।

क्या बधिया, भैसा, बैल, शुतर

क्या गोई, पिल्ला, सरभारा

क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर

क्या आग, धुआं, क्या अंगारा

सब थाट पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा।

गर तू है लक्खी बंजारा

और खेत भी तेरी भारी है

ए गाफिल तुझ से भी चढ़ता

और बड़ा ब्योपारी है।

क्या शक्कर, मिसरी, कंद, गिरी

क्या सांभर मीठा, खारी है

क्या दाख, मुनक्का, सोंठ, मिर्च

क्या केसर, लौंग, सुपारी है

सब थाट पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा।

ये बधिया लादे बैल भरे

जो पूरब - पच्छिम जावेगा

या सूद बढाकर लावेगा

या टूटा घाटा पावेगा

कज्जाक अजल का रस्ते में

जब भाला मार गिरावेगा

धन, दौलत, नाती, पोता क्या

इक कुनबा काम ना आवेगा

सब थाट पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा।

सनद: यह पोस्ट उसी दिल्ली में लिखी गई जिस दिल्ली ने ना मीर की वकत की, ना ग़ालिब की। और लिखे जाने का बखत वही जब नौ दौलतिया वर्ग हंगोवर से जूझ रहा है। बकलम ख़ुद। लिख दिया ताकि सनद रहे और बखत पर काम आवे।

Sunday, September 06, 2009

मेहतर से भी गए गुज़रे

जिन्ना वाली पोस्ट की इस नई कड़ी में कुछ बातें जोड़ना चाहता हूँ। गाँधी जी ने नेहरू, पटेल और अन्य कांग्रेसियों के बारे में अपने एक मित्र से कहा था, "यह लोग कहते तो मुझको महात्मा हैं लेकिन मुझे मेहतर से भी गया गुज़रा मानते हैं।"
गांधीजी को पता कि जब तक अँगरेज़ जिन्ना को पाकिस्तान देने के लिए राज़ी नहीं होंगे तब तक जिन्ना कुछ नहीं कर पाएंगे। यही वजह थी गांधीजी ने माउंटबैटन से कहा था, "हिंदुस्तान छोड़ दें, फिर उसके बाद यहाँ अफरा-तफरी हो, अराजकता हो या चाहे जो हो। हम सब संभालेंगे।"
लेकिन नेहरू और पटेल के कारण उनकी एक नहीं चली।
पटेल तो माउंटबैटन के भारत पहुँचने से पहले ही पाकिस्तान की बात मान गए थे। उनको दो बार हार्ट अटैक हो चुका था, और वे डिबेट और बहसों से बचकर भारत के लिए जुटना चाहते थे। वे कहते थे कि जिन्ना को पाकिस्तान दे दो, वह कुछ वर्षों बाद भारत से दुबारा जुड़ने के लिए आ जायेंगे।
वहीं नेहरू को मनाने के लिए माउंटबैटन ने 'OPERATION SEDUCTION' शुरू किया जिसमें लेडी माउंटबैटन ने अहम् भूमिका निभाई। और नेहरू मान गए!!
महात्मा गाँधी को क्या आज भी मेहतर से भी गया गुज़रा नहीं माना जाता?

सनद - यह पोस्ट उसी दिल्ली में लिखी गई जहाँ की कोई चीज़ अपनी ख़ुद की नहीं । यहाँ तक कि मौसम भी नहीं। और लिखे जाने का बखत इतवार की अलसाई दुपहरी जब कुछ लोग पसर जाते हैं तो कुछ चिडिमार ब्लॉग में सर खपाते हैं। बकलम ख़ुद। लिख दिया ताकि सनद रहे और बखत पर काम आए।

Saturday, September 05, 2009

कौन है सेकुलर?



यारों ने बहुत कहा की कुछ जिन्नाह और जसवंत सिंह की पुस्तक के बारे में लिखोबात दरअसल यह है की मैं तो जिन्नाह का प्रसंशक हूँ और मैं जसवंत सिंह को इस लायक मानता हूँ की उनकी किताब ज़रूर पढ़ी जाएअगर देखा जाए तो जिन्नाह, अटल बिहारी वाजपेयी और जसवंत सिंह कुदरती तौर पर सेकुलर हैं लेकिन अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के कारण यह लोग सांप्रदायिक राजनीति करते रहेहिंदुस्तान में इस किताब पर इतना बावेला क्यों मच रहा है, यह मेरी समझ के परे हैपाकिस्तान में ज़रूर इस किताब पर चर्चा हो रही है, लेकिन वोह भी थोड़ा नेगेटिव अंदाज़ मेंवहां कुछ लोगों का कहना है की भारत में आज भी कायदे आज़म के प्रति लोगों में दुराव हैभारत में कोई सच को स्वीकार नहीं करता

मेरे पत्रिकारिता में गुरु समान और पाकिस्तान के अंग्रेज़ी के सबसे बड़े अखबार The News के ग्रुप एडिटर शाहीन सहबाई से बात हो रही थी, इसी मुद्दे पर। उन्होंने एक बात बात बड़े मार्के की कही की भारत में इतिहास लिखना और पढ़ना शुरू हो गया है लेकिन पाकिस्तान में आज भी इतिहास लिखने और पढने की रिवायत नहीं हैजसवंत सिंह ने कायदे आज़म के बारे में जो भी लिखा है उससे ज़्यादा internationally लिखा जा चुका हैउनका कहना था की पाकिस्तान में भी दो तरह के लोग हैंएक वे हैं जो कायदे आज़म को श्रद्धा से देखते हैं। दूसरे वे हैं जो कहते हैं कि कायदे आज़म तो आधे अँगरेज़ थे। जिया उल हक के ज़माने में हर जगह कायदे आज़म कि फोटो मिलती थी जिसमे वे जिन्नाह कैप लगाये और शेरवानी पहने नज़र आते थेजमात इस्लामी जो आज़ादी के पहले उन्हें 'काफिरे आज़म' कहती थी, आगे चल कर वोही जम्माते इस्लामी उनकी भक्त हो गईसहबाई साहब ने यह भी कहा कि भारत में तो किसी ने जिन्नाह पर किताब लिख दी, लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि पाकिस्तान में शेख रशीद गाँधी जी के अहिंसक आन्दोलन पर किताब लिखें? क्या ये कल्पना की जा सकती है कि मौलाना फज़लुर रहमान भारत की तेज़ी से बढती economy पर कुछ लिखें? मुद्दा यह नहीं है कि जिन्नाह पर किसने, कहाँ, क्या लिखामुद्दा यह है कि जिन्नाह कैसा पाकिस्तान चाहते थे! बहस इस बात पर होनी चाहिए

Tuesday, September 01, 2009

जीन्स पर बहस


आजकल जींस के बारे में काफी बहस चल पड़ी है। हमेशा ही चलती रही है। लेकिन इस बार तो हिन्दी के मान्यता प्राप्त कवि श्री राजेश जोशी भी मैदान में उतर आए हैं। सबसे पहले तो मैं साफ़ कर दूँ कि मैं जींस के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। मेरी दोनों बेटियाँ जींस पहनती हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि जींस में व्यक्ति स्मार्ट, चुस्त - दुरुस्त लगता है। वोह जींस पहनकर आसानी से काम कर सकता है। जींस टिकाऊ भी होती है और जल्दी ख़राब भी नहीं होती। शायद इसीलिए अमेरिका में कैदियों को जींस पहनाने का रिवाज चला। फिर उसके बाद हिंदुस्तान में आई लो वेस्ट वाली जींस। यह अमेरिका के कैदियों की देन है। अमेरिका में तो अब लोगों पर लो वेस्ट की जींस पहनने पर पाबन्दी भी लगा दी गई है।
हिन्दी के मान्यता प्राप्त कवि श्री राजेश जोशी ने एक सितम्बर के जनसत्ता में लिखा है कि जींस ने समाज में बराबरी पैदा कर दी है। लिखा है कि साड़ी और सलवार - कुरते में तो पहनने वाली कि औकात पता चल जाती है। कोई महँगी साड़ी और महंगा सलवार - कुरता पहनता है और कमतर पहनने वाली महिला को काम्प्लेक्स का शिकार होना पड़ता है। लेकिन जींस में ऐसा नहीं है।
यहाँ दो बातें हैं। पहली तो यह कि दो तरह की जींस बाज़ार में हैं। दिल्ली में पहले तरह की जींस टैंक रोड पर मिलती है जिसे आम लोग खरीदते हैं। दूसरी तरह की जींस मॉल्स, बड़े - बड़े शो रूम्स में मिलती है जिसे बड़े लोग ही खरीदते हैं। मॉल्स वाली जींस पहनने वाली लड़कियां टैंक रोड से खरीदी जींस पहनने वाली लड़कियों को नीची नज़रों से देखती हैं।
दूसरी बात यह कि हिन्दी के मान्यता प्राप्त कवि श्री राजेश जोशी ने सलवार - कुरते को जो कमतर बताया है तो मैं समझता हूँ कि उन्हें शायद यह पता नहीं कि साड़ी और सलवार - कुरता उपेक्षित लोगों का लिबास बन गए हैं। इन्हे पहनने वाली महिलाओं और लड़कियों को 'बहनजी' कहा जाता है, और जींस पहनने वाली बाला को आधुनिक!!
हिन्दी के मान्यता प्राप्त कवि श्री राजेश जोशी ने हुंकार भरी है कि जींस पहन कर ही कस्बाई मानसिकता और रहन - सहन वाली लड़की हर क्षेत्र में खटाखट आगे बढ़ सकती है। श्री जोशी ने कहा है कि जींस पहनने पर स्कूलों और कॉलेज में पाबन्दी नहीं लगायी जानी चाहिए जैसे जींस ही लड़कियों की तरक्की का अकेला रास्ता हो!

Thursday, July 23, 2009

नई कहानी कनचोदा

इस नई कहानी की शुरुआत कुछ इस तरह है -
"रात भर मेह बरसा था। भोर में देखा तो सब तरफ़ जल-थल हो रहा था। धान की बेरन तैयार हो चुकी थी और उन्हें लगाने का समय हो चला था। तभी लाला बढ़ई ने आकर बताया की कनचोदा मर गया।
मैंने छाता लिया और कनचोदे के घर की तरफ़ चल पड़ा। झीसी पड़ रही थी। गलियां दलदली हो रही थीं। गाँव की औरतें पलरी में धान की बेरने लेकर खेतों की तरफ़ चली जा रही थीं...."

Tuesday, July 14, 2009

नई कहानी

मेरी एक कहानी 'बुजरी' हंस के जुलाई २००९ के अंक में प्रकाशित हुई है। आप उसे पढ़ सकते हैं। उसके बाद मैं एक नई कहानी जल्द पेश करने वाला हूँ जिस पर काम लगभग समाप्त हो गया है। कहानी का शीर्षक है 'कनचोदा'।