यारों ने बहुत कहा की कुछ जिन्नाह और जसवंत सिंह की पुस्तक के बारे में लिखो। बात दरअसल यह है की मैं न तो जिन्नाह का प्रसंशक हूँ और न मैं जसवंत सिंह को इस लायक मानता हूँ की उनकी किताब ज़रूर पढ़ी जाए। अगर देखा जाए तो जिन्नाह, अटल बिहारी वाजपेयी और जसवंत सिंह कुदरती तौर पर सेकुलर हैं लेकिन अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के कारण यह लोग सांप्रदायिक राजनीति करते रहे। हिंदुस्तान में इस किताब पर इतना बावेला क्यों मच रहा है, यह मेरी समझ के परे है। पाकिस्तान में ज़रूर इस किताब पर चर्चा हो रही है, लेकिन वोह भी थोड़ा नेगेटिव अंदाज़ में। वहां कुछ लोगों का कहना है की भारत में आज भी कायदे आज़म के प्रति लोगों में दुराव है। भारत में कोई सच को स्वीकार नहीं करता।
मेरे पत्रिकारिता में गुरु समान और पाकिस्तान के अंग्रेज़ी के सबसे बड़े अखबार The News के ग्रुप एडिटर शाहीन सहबाई से बात हो रही थी, इसी मुद्दे पर। उन्होंने एक बात बात बड़े मार्के की कही की भारत में इतिहास लिखना और पढ़ना शुरू हो गया है लेकिन पाकिस्तान में आज भी इतिहास लिखने और पढने की रिवायत नहीं है। जसवंत सिंह ने कायदे आज़म के बारे में जो भी लिखा है उससे ज़्यादा internationally लिखा जा चुका है। उनका कहना था की पाकिस्तान में भी दो तरह के लोग हैं। एक वे हैं जो कायदे आज़म को श्रद्धा से देखते हैं। दूसरे वे हैं जो कहते हैं कि कायदे आज़म तो आधे अँगरेज़ थे। जिया उल हक के ज़माने में हर जगह कायदे आज़म कि फोटो मिलती थी जिसमे वे जिन्नाह कैप लगाये और शेरवानी पहने नज़र आते थे। जमात ऐ इस्लामी जो आज़ादी के पहले उन्हें 'काफिरे आज़म' कहती थी, आगे चल कर वोही जम्माते इस्लामी उनकी भक्त हो गई। सहबाई साहब ने यह भी कहा कि भारत में तो किसी ने जिन्नाह पर किताब लिख दी, लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि पाकिस्तान में शेख रशीद गाँधी जी के अहिंसक आन्दोलन पर किताब लिखें? क्या ये कल्पना की जा सकती है कि मौलाना फज़लुर रहमान भारत की तेज़ी से बढती economy पर कुछ लिखें? मुद्दा यह नहीं है कि जिन्नाह पर किसने, कहाँ, क्या लिखा। मुद्दा यह है कि जिन्नाह कैसा पाकिस्तान चाहते थे! बहस इस बात पर होनी चाहिए।
5 comments:
मै 'secular' इस शब्द का 'Latin' origin तो नही जानती ..लेकिन हाँ , पता करूंगी ...
हम 'धर्म' इस शब्द का बेहद ग़लत इस्तेमाल करते हैं,इतना कह सकती हूँ..शब्द कोष में धर्म शब्द, किसी जाती के सन्दर्भ में नही लिखा गया...'धारण करे सो धर्म' ये व्याख्या है..मतलब 'निसर्ग धर्म' या 'कुदरत'के क़ानून, जो सबके लिए एक जैसे हैं..कोई भेद भाव नही...दुनिया में कहीं जायें..आग में हाथ डालेंगे तो जलेगा...
जिन्नाह क्या चाहते थे, और गाँधी जी ने क्या किया ये कितना महत्त्व रखता है? मै गांधी जी को एक युग पुरूष मानती हूँ...उन्हों ने पकिस्तान कभी नही चाह..जिसे किसी भी तख्तो ताज की लालच नही थी,जो केवल देश हित,मानव कल्याण सोचता था...उसपे उंगली उठाना कितना वाजिब है?
'माँगा न कोई तख्त
और न ताज ही लिया,
अमृत दिया सभीको,
मगर ख़ुद ज़हर पिया,
जिस दिन तेरी चिता जली,
रोया था महाकाल,
साबरमती के संत
तूने कर दिया कमाल..'
गांधी जी के लिए यही अल्फाज़ इस्तमाल करना चाहती हूँ...आपका आलेख अभ्यास पूर्ण है..
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अरूण जी,
यह बात कुछ हद तक सच है कि भारत में इतिहास पढने लिखने की कवायद शुरू हो गई है, लेकिन इसमें भी एक पेंच है। वह पेंच दरअसल यह है कि इतिहासकार आज डरा सहमा है। क्या पता कुछ ऐसा वैसा लिख दिया जाय और पता चले कि अगले दिन उसके घर में तोड फोड हो जाय, पत्नी बच्चे अलग जलील हों। जेम्स लेन वाली घटना हो या कोई और.....हमें अब भी इतिहास केवल श्रद्धा भाव से पढाया जा रहा है जो कि अंधश्रद्धा का ही एक दूसरा संस्करण है।
उम्दा पोस्ट।
post or tippani dono gyan ka bhandar.narayan narayan
मित्रो! बात यह भी महत्वपूर्ण है की पाकिस्तान में आज भी इतिहास लिखना और पढना दोनों मुहाल है. लेकिन पाकिस्तान में ऐसे लोग भी हैं जो चीज़ों को ओब्जेक्टिविटी में देखते हैं. एक बात और कि हमारे यहाँ पाकिस्तान पर बहुत कम जानकारी है. मेरी कोशिश अब यह भी रहेगी कि वहां के रोशन ख्याल लोगों से आपकी मुलाक़ात कराऊँ.
बिना पढ़े ही प्रतिकिया देना हमारे देश में एक फैशन हो गया है...आपने अटल जी और जिन्ना को मूल रूप से सेकुलर बताया है ,यह एक हद तक सही है...शमा जी ने गाँधी पर उचित टिप्पणी की है
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