लगभग २५० साल पुरानी एक नज़्म यहाँ दे रहा हूँ, जिसे नजीर अकबराबादी ने लिखा है। पढ़ें और उस ज़माने की भाषा का लुत्फ़ उठायें -
बंजारा
इक हिर्सो हवा को छोड़ मियां
मत देस परदेस फिरे मारा
कज्जाक अजल का लूटे है
दिन - रात बजाकर नक्कारा।
क्या बधिया, भैसा, बैल, शुतर
क्या गोई, पिल्ला, सरभारा
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर
क्या आग, धुआं, क्या अंगारा
सब थाट पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा।
गर तू है लक्खी बंजारा
और खेत भी तेरी भारी है
ए गाफिल तुझ से भी चढ़ता
और बड़ा ब्योपारी है।
क्या शक्कर, मिसरी, कंद, गिरी
क्या सांभर मीठा, खारी है
क्या दाख, मुनक्का, सोंठ, मिर्च
क्या केसर, लौंग, सुपारी है
सब थाट पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा।
ये बधिया लादे बैल भरे
जो पूरब - पच्छिम जावेगा
या सूद बढाकर लावेगा
या टूटा घाटा पावेगा
कज्जाक अजल का रस्ते में
जब भाला मार गिरावेगा
धन, दौलत, नाती, पोता क्या
इक कुनबा काम ना आवेगा
सब थाट पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा।
सनद: यह पोस्ट उसी दिल्ली में लिखी गई जिस दिल्ली ने ना मीर की वकत की, ना ग़ालिब की। और लिखे जाने का बखत वही जब नौ दौलतिया वर्ग हंगोवर से जूझ रहा है। बकलम ख़ुद। लिख दिया ताकि सनद रहे और बखत पर काम आवे।
3 comments:
अमां मियां,
मज़ा आ गया। इसलिए दो वक्त जी ले ऐ नादा ज़िंदगी के वास्ते। वरना बस बात यही है कि सब ठाट पड़ा रह जावेगा और हम पैर पसारे जल देंगे।
मज़ा आया ना! नजीर अकबराबादी में बात ही कुछ ऐसी है. अब उनका एक शेर देखिये -
दुनिया में बादशाह है, सो है वह भी आदमी
और मुफलिस-ओ-गदा है, सो है वह भी आदमी
ek achhi nazm su ru-b-ru hone ka mauka mila.
dhanyavaad
dr jagmohan rai
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