Tuesday, September 01, 2009

जीन्स पर बहस


आजकल जींस के बारे में काफी बहस चल पड़ी है। हमेशा ही चलती रही है। लेकिन इस बार तो हिन्दी के मान्यता प्राप्त कवि श्री राजेश जोशी भी मैदान में उतर आए हैं। सबसे पहले तो मैं साफ़ कर दूँ कि मैं जींस के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। मेरी दोनों बेटियाँ जींस पहनती हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि जींस में व्यक्ति स्मार्ट, चुस्त - दुरुस्त लगता है। वोह जींस पहनकर आसानी से काम कर सकता है। जींस टिकाऊ भी होती है और जल्दी ख़राब भी नहीं होती। शायद इसीलिए अमेरिका में कैदियों को जींस पहनाने का रिवाज चला। फिर उसके बाद हिंदुस्तान में आई लो वेस्ट वाली जींस। यह अमेरिका के कैदियों की देन है। अमेरिका में तो अब लोगों पर लो वेस्ट की जींस पहनने पर पाबन्दी भी लगा दी गई है।
हिन्दी के मान्यता प्राप्त कवि श्री राजेश जोशी ने एक सितम्बर के जनसत्ता में लिखा है कि जींस ने समाज में बराबरी पैदा कर दी है। लिखा है कि साड़ी और सलवार - कुरते में तो पहनने वाली कि औकात पता चल जाती है। कोई महँगी साड़ी और महंगा सलवार - कुरता पहनता है और कमतर पहनने वाली महिला को काम्प्लेक्स का शिकार होना पड़ता है। लेकिन जींस में ऐसा नहीं है।
यहाँ दो बातें हैं। पहली तो यह कि दो तरह की जींस बाज़ार में हैं। दिल्ली में पहले तरह की जींस टैंक रोड पर मिलती है जिसे आम लोग खरीदते हैं। दूसरी तरह की जींस मॉल्स, बड़े - बड़े शो रूम्स में मिलती है जिसे बड़े लोग ही खरीदते हैं। मॉल्स वाली जींस पहनने वाली लड़कियां टैंक रोड से खरीदी जींस पहनने वाली लड़कियों को नीची नज़रों से देखती हैं।
दूसरी बात यह कि हिन्दी के मान्यता प्राप्त कवि श्री राजेश जोशी ने सलवार - कुरते को जो कमतर बताया है तो मैं समझता हूँ कि उन्हें शायद यह पता नहीं कि साड़ी और सलवार - कुरता उपेक्षित लोगों का लिबास बन गए हैं। इन्हे पहनने वाली महिलाओं और लड़कियों को 'बहनजी' कहा जाता है, और जींस पहनने वाली बाला को आधुनिक!!
हिन्दी के मान्यता प्राप्त कवि श्री राजेश जोशी ने हुंकार भरी है कि जींस पहन कर ही कस्बाई मानसिकता और रहन - सहन वाली लड़की हर क्षेत्र में खटाखट आगे बढ़ सकती है। श्री जोशी ने कहा है कि जींस पहनने पर स्कूलों और कॉलेज में पाबन्दी नहीं लगायी जानी चाहिए जैसे जींस ही लड़कियों की तरक्की का अकेला रास्ता हो!

1 comment:

सतीश पंचम said...

कुछ हद तक राजेश जोशी की बात को सच मान सकता हूँ कि जीन्स आधुनिकता का पैमाना बन गई है लेकिन पूरी तरह से नहीं......जीन्स को यदि आधुनिकता का पैमाना माना जाय तो आसाम और नागालैंड के इलाके तो पहले ही देश से आगे निकले माने जा सकते हैं जहां पर कि जीन्स संस्कृति ने बहुत पहले अपनी पैठ बना ली थी, जबकि हालत यह है कि वहां फर्राटे से अंग्रेजी बोलती बालाएं आठवीं पास भी मुश्किल से हो पाती हैं।

आज आपने मेरे यहां इस प्रोफाइल नेमं से कमेंट दिया और देखिये....दन्न से सीधे आपके ब्लॉग पर आपके प्रोफाइल लिंक के जरिये आ गया :)