Monday, October 26, 2009

संघ के लोगों की बीमारियाँ !


अभी कुछ दिनों पहले की बात है, सीहोर (मध्य प्रदेश) से मेरे एक पत्रकार मित्र आये हुए थे. उन्होंने बताया कि सीहोर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक प्रचारक ने संघ की शाखाओं में आने वाले एक बालक के साथ दुष्कर्म किया. इस घटना को रफा दफाकर दिया गया और वह प्रचारक आज भी छुट्टे सांड की तरह घूम रहा है. राज्य में हाफ पैनटिया लोगों की सरकार है इसलिए संघियों के सारे अपराध माफ़ हैं.
संघ के अविवाहित प्रचारक के बारे में मशहूर है कि वे संघ की शाखाओं में आने वाले अबोध बालकों के साथ दुष्कर्म करते हैं. सभी प्रचारक तो ऐसे नहीं होते, लेकिन प्रायः होते हैं. कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो चोरी छुपे महिलायों के साथ सम्बन्ध रखते हैं. दो को मैं ही जनता हूँ. एक को तो टीकमगढ़ में 'मद्रास वाले जीजाजी' कहा जाता है, और दूसरे एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं. संघ परिवार के एक वयोवृध्द नेता तो आजीवन अविवाहित रहे लेकिन अपनी प्रेमिका को हमेशा उन्होंने अपने साथ रखा. उस महिला से उनकी एक बेटी भी है जिसे गोद लेकर उन्होंने उसे अपना नाम दे दिया है.
बहरहाल, कहने का मकसद यह है कि संघ परिवार में दुष्कर्मियों और ऐयाशों की कोई कमी नहीं है.

Tuesday, October 06, 2009

हम डरते हैं चीन से !!

हम चीन से डरते हैं. हमें उसकी फौज से डर लगता है. हमें उसके हथियारों से डर लगता है. हमें उसके कारोबार से डर लगता है. चीन से डरने की कोई सीमा नहीं है. दरअसल हमें उससे डरने का बहाना चाहिए. १९६२ की जंग के बाद से ही हमने चीन से डरना शुरू कर दिया था, और आज तक उससे डरते चले आ रहे हैं. अभी हाल में चीन ने अपनी क्रांति का जो समारोह आयोजित किया और उसमे अपना जो शक्ति प्रदर्शन किया उससे हमारी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे से निकल गयी.
इन सब चीज़ों से हम डरते हैं लेकिन चीन की एक चीज़ से हम नहीं डरते जबकि उससे डरना बहुत ज़रूरी है. लेकिन चीन की उस ताकत की हमें रत्ती भर परवा नहीं है.
मेरे बड़े भाई और हिंदी के बड़े कवि श्री अशोक वाजपेयी के अनुसार चीन के समाजवादी गणतंत्र ने अपनी षष्ठिपूर्ति पर बीजिंग में अपनी सैन्य शक्ति का शानदार और भयातुर करने वाला प्रदर्शन किया जिससे चीन की एक लड़ाकू तस्वीर सामने आई. लेकिन जब दिल्ली में उसके राजदूतावास ने इस अवसर पर एक समारोह आयोजित किया तो उसमें आने वाले हर अतिथि को जो उपहार दिया, उसमे 'रीडिंग इन चाइना' नाम की एक पुस्तक है जो यह बताती है कि लड़ाकू होने के साथ-साथ चीन एक बेहद पढाकू देश भी है.
इस प्रचार-पुस्तक से यह तथ्य पता चलता है कि चीन में प्रति वर्ष दो लाख ३४ हज़ार पुस्तकें छपती हैं, जिनकी प्रतियों कि संख्या लगभग साढ़े छह अरब है. ऐसा अनुमान लगाया गया है कि २०१० से हर वर्ष १० लाख लोगों के पीछे १९२ पुस्तकें होंगी और हर वर्ष हर चीनी व्यक्ति औसतन साढ़े पांच पुस्तकें और ढाई पत्रिकाएं पढ़ रहा होगा. यह सब तब जब चीन में पढने की आदत घटने पर चिंता व्यक्त की जा रही है और सरकार और पार्टी दोनों ही स्तरों पर उसे बढाने के लिए विशेष प्रयत्न करने का आग्रह किया जा रहा है.
शंघाई में एक बुक मॉल है जो २७ मंजिला इमारत में स्थित है. उसमे रोजाना आने वाले व्यक्तियों की संख्या ३० लाख के आसपास है. साढ़े आठ लाख युआन की पुस्तकें रोजाना बिक जाती हैं. इधर कई खबरें इस आशय की आती रही हैं कि हमारी सैन्य शक्ति चीनी सैन्य शक्ति के मुकाबले कम है. इन आंकडों से लगता है कि चीन की चौतरफा बढती शक्ति का आधार उसका इस कदर पढाकू होना भी है. इस मामले में हम बेहद पीछे हैं, इसकी किसे चिंता है? और हम भारत को एक समकक्ष पढाकू देश बनाने के लिए क्या कुछ ठोस और कारगर कर पा रहे हैं?