
इन सब चीज़ों से हम डरते हैं लेकिन चीन की एक चीज़ से हम नहीं डरते जबकि उससे डरना बहुत ज़रूरी है. लेकिन चीन की उस ताकत की हमें रत्ती भर परवा नहीं है.
मेरे बड़े भाई और हिंदी के बड़े कवि श्री अशोक वाजपेयी के अनुसार चीन के समाजवादी गणतंत्र ने अपनी षष्ठिपूर्ति पर बीजिंग में अपनी सैन्य शक्ति का शानदार और भयातुर करने वाला प्रदर्शन किया जिससे चीन की एक लड़ाकू तस्वीर सामने आई. लेकिन जब दिल्ली में उसके राजदूतावास ने इस अवसर पर एक समारोह आयोजित किया तो उसमें आने वाले हर अतिथि को जो उपहार दिया, उसमे 'रीडिंग इन चाइना' नाम की एक पुस्तक है जो यह बताती है कि लड़ाकू होने के साथ-साथ चीन एक बेहद पढाकू देश भी है.
इस प्रचार-पुस्तक से यह तथ्य पता चलता है कि चीन में प्रति वर्ष दो लाख ३४ हज़ार पुस्तकें छपती हैं, जिनकी प्रतियों कि संख्या लगभग साढ़े छह अरब है. ऐसा अनुमान लगाया गया है कि २०१० से हर वर्ष १० लाख लोगों के पीछे १९२ पुस्तकें होंगी और हर वर्ष हर चीनी व्यक्ति औसतन साढ़े पांच पुस्तकें और ढाई पत्रिकाएं पढ़ रहा होगा. यह सब तब जब चीन में पढने की आदत घटने पर चिंता व्यक्त की जा रही है और सरकार और पार्टी दोनों ही स्तरों पर उसे बढाने के लिए विशेष प्रयत्न करने का आग्रह किया जा रहा है.
शंघाई में एक बुक मॉल है जो २७ मंजिला इमारत में स्थित है. उसमे रोजाना आने वाले व्यक्तियों की संख्या ३० लाख के आसपास है. साढ़े आठ लाख युआन की पुस्तकें रोजाना बिक जाती हैं. इधर कई खबरें इस आशय की आती रही हैं कि हमारी सैन्य शक्ति चीनी सैन्य शक्ति के मुकाबले कम है. इन आंकडों से लगता है कि चीन की चौतरफा बढती शक्ति का आधार उसका इस कदर पढाकू होना भी है. इस मामले में हम बेहद पीछे हैं, इसकी किसे चिंता है? और हम भारत को एक समकक्ष पढाकू देश बनाने के लिए क्या कुछ ठोस और कारगर कर पा रहे हैं?
2 comments:
ये नए तरह का आंकड़ा लेकर आए हैं आप। पता नहीं कितना सही है लेकिन, इतना तो सच है कि हम चीन से डरते हैं
Sir, I read this article & this is well known that in india book reading is laking badly. I am also from generalist community so if possible send me ur email address for further communication.
Dhanayvaad
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